Sunday, September 24, 2023

 

 

इस पड़ाव पर

(प्यारे दोस्तों के नाम)

आओ मिल कर दर्द बाँटते हैं,

यादों पर जमी धूल छाँटते हैं;

कुछ बातें करते हैं फिर यादें छाँटते हैं,

थोड़ा बचपन थोड़ी तरुणाई फिर से काटते हैं;

आओ मिल कर दर्द बाँटते हैं।।

 

खुशियों पर जमी थोड़ी धुल झाड़ते हैं,

फिर, उसे थोड़े ग़मों पर डालते हैं;

चलो मिल कर थोड़ा दर्द बाँटते हैं।।

 

कह देना जो जी में आये,

और सुन लेना जो मेरे मन में आये।

मुस्कुरा देना जो मेरी बात जाए,

या थपथपा देना काँधा मेरा -

जो आँख भर आये ।।

 

उम्मीद रखना तुम मुझसे पहले ही सी,

दूर नहीं ले गई ज़िंदगी इतना भी;

फिर से यादों की डोर-पतंग बांधते हैं -

चलो मिलकर दर्द बांटते हैं ।।

 

ये रुका-रुका सा समय काटते हैं,

थोड़े आँसू थोड़ी हँसी भी बाँटते हैं;

आओ , मिल्क कर दर्द बांटते हैं।

 

बचपन की यादों को दुलराते हैं,

तरीनाइ में गोते लगाते हैं

नवयौवन के गुलाबी अहसास को फिर से जीते हैं

थोड़े कहकहे लगते हैं थोड़ा मुख को सीते हैं

आओ मिलकर फिर से जीते हैं।।

 

कड़वी यादों को चलो भूल जाते हैं,

दोनों फिर से दो-दो कदम बढ़ाते हैं;

ज़िन्दगी की धूप-छाँव छाँटते हैं ,

चलो इस बार बस प्यार बांटते हैं।।

 

अहसासों की उघड़ी सीवन को सीते हैं,

खट्टे-मीठे लम्हे फिर से जीते हैं;

बिसरा देना बस, पल जो कड़वे बीते है-

नाराज़गी की बरफ़ को पिघलाते हैं,

प्यार की गुनगुनी आँच को फिर से सुलगाते हैं,

फिर से बेफिक्र हो कहकहे लगाते हैं;

आओ बैठो थोड़ा प्यार जताते हैं ।।

 

पी लेना तुम अपनी चाय चहेती,

मुझको अब भी कॉफी ही भाती है;

पीला रंग तुम्हे था भाता,

नीला अब भी मेरी थाती है;

पढ़ने तुम्हारे मेसेज, मेरी आँख तरस जाती है,

लैंडलाइन की जबतब बजती घंटी अब भी याद तुम्हारी लाती है।।

 

एक तुम्हारी वो लूना लाल-

उसपर अल्हड सी अपनी चाल,

वो गलियों में टहलना साथ-साथ;

और गुस्ताखियों पर मिलाना हाथ,

आओ उन यादों को फिर से जीते हैं ,

जीते हैं सुनहरे पलों की एक और किताब सीते हैं।।

 

वो तुम्हारे घर आकर मेरा एकदम सीधा बन जाना-

और तुम्हारा मुझको लेकर घुम्मन निकल जाना,

वो अपना बेपरवाह, बेहिस, बेसबब साइकिल दौड़ाना;

छूट गया है अब उतना हँसना-हँसाना-

चलो वो सब फिर से जीते हैं,

चाय और कॉफ़ी संग-संग पीते हैं।

कुछ किस्से गढ़ते है, कुछ यादें जीते हैं,

चलो बैठकर बस बातें करते हैं;

अपनी दोस्ती को फिर से जीते हैं-

किस्सों और कहानियों की एक और किताब सीते हैं ।।

 

 

Sunday, December 13, 2020

 

                हिमालय से संवाद

 


जल में, थल में और नील गगन में,

देखा क्या कुछ तुम सा मैंने जीवन में?

 तुम ही हो अवनी-अम्बर में;

तुम ही हो दिगन्त  तक हर एक नज़र में,

तुम ही हो धरा पर जीवन की हर लहर में;

और तुम ही तो हो मेरे मानस के अंतर में।।


आती हूँ जब भी निकट तुम्हारे,

दिखते हैं अगणित रंग तुम्हारे,

मोह लेते हैं वृक्ष-विटप, चाँद और तारे;

सुनहरी रंग जाते हैं सगरे सांझ सकारे।

 

 बहती है वो जो धरा पे धारा-

या फिर झरती बनकर झर-झर झारा,

जीवन जिस पर निर्भर सारा-

साथ सदा से है क्या उसका और तुम्हारा?

 

 मौन खड़े सदैव चिंतक से,

दुखी हो क्या तुम किसी कंटक से?

समेटे इतनी हलचल  सदियों से;

फिर भी हो क्यों इतने पृथक से?

क्या घर की है याद सताती?

या सागर की गहराई बुलाती-

आखिर किसकी चिंता है सताती;

 छूट गई वहां है क्या कोई थाती?

 

  अच्छाजब घर से चले थे-

क्या मन ही मन कुछ डरे थे?

सदियों तक सोचा था,

 या फिर बस उठ खड़े हुए थे?

कुछ भय तो हुआ होगा,

मोह का धागा कहीं तो रहा जुड़ा  होगा;

सब बंधन क्या तोड़ चले थे,

सारी माया भी छोड़ चले थे। 

 

अतल अंधियारी गहराई का डर था,

या अम्बर छूने का अहसास सुदृढ़ था-

चल पड़े थे क्या तुम बिन विचारे;

हो गए क्या पूरे सपने तुम्हारे?

कोई संगी साथ चला तो होगा,

काँधे पर कोई एक हाथ रहा तो होगा;

संग-साथ हीन  ही चल पड़े थे,

अच्छा! सपने तुम्हारे इतने बड़े थे!

 

संगी साथी याद तो आते होंगे-

बीते पल मन भी भटकाते होंगे,

उड़ते  पाखी संदेसा जब लाते होंगे;

पढ़ के उसको आंसू भी तो आते होंगे-

कैसे खुद को समझाते होगे?

कैसे वो पीर दबाते होगे?

क्या कभी पछताते भी होगे

तब कैसे खुद को भरमाते होगे?

 

पर, शायद ये मेरे ही विचार हैं-

जो मेरे मानव होने का प्रमाण हैं,

कदाचित, मेरी समझ के ही पार है कि-

तुमसे ही तो धरती पर जीवन साकार है। 

 

निश्चय ही तुमने बहुत विचारा होगा;

मानव हित में ही घर-आँगन वारा होगा। 

 

चल पड़े तुम नई डगर,

छोड़ आये तुम अपना नगर;

घर से जब तुम दूर चले-

तब ही तो तुम आगे निकले,

जब तुम अम्बर की ओर बढ़े;

तब रचने तुम इतिहास चले।  

 

खड़े हो तुम सर उठाये,

अंतर में प्रहास समाये;

सदियों का इतिहास समेटे,

सदा हिम की चादर लपेटे,

अंतहीन समय खुद में समेटे;

आगे ही बढ़ने का ही संदेसा देते,

मुझको हरदम पास बुलाते,

अपनी गरिमा से रिझाते;

जीवन का सब सार बताते!

बिन बोले भी हम हैं कितना बतियाते!!

 

जल में, थल में और नील गगन में

देखा क्या कुछ तुम सा मैंने जीवन में