Friday, April 3, 2020

कहीं कुछ मुझमे है-
जो निरंतर निराशा में भी
आह्वाहन करता है मेरा और प्रज्वल्लित करता है,
अगणित अखंड आशादीप मेरी उन राहों में
जो अंधकारमय और निराशापूर्ण लगतीं  हैं।

कहीं कुछ ऐसा है,
जो घनघोर निराशा में भी आशा का संचार करता है
जो श्रावण की घनघोर वृष्टि के बाद
एक इंद्रधनुष झलका जाता है
और महका जाता है
मेरे दृढ़निश्चय के उस उपवन को
जो वसंत की प्रतीक्षा में पतझड़ को अलविदा कह
शिशिर से गलबहियां कर रहा है।

अश्क़ रेत की मानिंद आँखों से फिसलते जाते हैं ,
हम रोज़ रिश्तों में नए पैबंद सिलते हैं;
हर दिन एक जोड़ लगाते हैं
हर सुबह फिर इक नया छेद  पाते हैं।।

रिश्तों की जो यह गठरी हमने थामी है ,
चोरों को हम लगते मोटे आसामी हैं;
पर गठरी का कपड़ा तो गया है गल ,
बाकी है तो बस दिखावा, छल और प्रपंच।।

हर रात इक कसम सी खाते हैं और खुद को मनाते हैं,
पर  गठरी का कबाड़ फेंक ही नहीं पाते हैं;
और जब इस कशमकश में दिमाग को दिल से जिताते हैं,
अश्क़ रेत की मानिंद आँखों से फिसलते जाते हैं।।
    

(12/02/1996)