Friday, April 3, 2020

अश्क़ रेत की मानिंद आँखों से फिसलते जाते हैं ,
हम रोज़ रिश्तों में नए पैबंद सिलते हैं;
हर दिन एक जोड़ लगाते हैं
हर सुबह फिर इक नया छेद  पाते हैं।।

रिश्तों की जो यह गठरी हमने थामी है ,
चोरों को हम लगते मोटे आसामी हैं;
पर गठरी का कपड़ा तो गया है गल ,
बाकी है तो बस दिखावा, छल और प्रपंच।।

हर रात इक कसम सी खाते हैं और खुद को मनाते हैं,
पर  गठरी का कबाड़ फेंक ही नहीं पाते हैं;
और जब इस कशमकश में दिमाग को दिल से जिताते हैं,
अश्क़ रेत की मानिंद आँखों से फिसलते जाते हैं।।
    

(12/02/1996)

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