Sunday, December 13, 2020

 

                हिमालय से संवाद

 


जल में, थल में और नील गगन में,

देखा क्या कुछ तुम सा मैंने जीवन में?

 तुम ही हो अवनी-अम्बर में;

तुम ही हो दिगन्त  तक हर एक नज़र में,

तुम ही हो धरा पर जीवन की हर लहर में;

और तुम ही तो हो मेरे मानस के अंतर में।।


आती हूँ जब भी निकट तुम्हारे,

दिखते हैं अगणित रंग तुम्हारे,

मोह लेते हैं वृक्ष-विटप, चाँद और तारे;

सुनहरी रंग जाते हैं सगरे सांझ सकारे।

 

 बहती है वो जो धरा पे धारा-

या फिर झरती बनकर झर-झर झारा,

जीवन जिस पर निर्भर सारा-

साथ सदा से है क्या उसका और तुम्हारा?

 

 मौन खड़े सदैव चिंतक से,

दुखी हो क्या तुम किसी कंटक से?

समेटे इतनी हलचल  सदियों से;

फिर भी हो क्यों इतने पृथक से?

क्या घर की है याद सताती?

या सागर की गहराई बुलाती-

आखिर किसकी चिंता है सताती;

 छूट गई वहां है क्या कोई थाती?

 

  अच्छाजब घर से चले थे-

क्या मन ही मन कुछ डरे थे?

सदियों तक सोचा था,

 या फिर बस उठ खड़े हुए थे?

कुछ भय तो हुआ होगा,

मोह का धागा कहीं तो रहा जुड़ा  होगा;

सब बंधन क्या तोड़ चले थे,

सारी माया भी छोड़ चले थे। 

 

अतल अंधियारी गहराई का डर था,

या अम्बर छूने का अहसास सुदृढ़ था-

चल पड़े थे क्या तुम बिन विचारे;

हो गए क्या पूरे सपने तुम्हारे?

कोई संगी साथ चला तो होगा,

काँधे पर कोई एक हाथ रहा तो होगा;

संग-साथ हीन  ही चल पड़े थे,

अच्छा! सपने तुम्हारे इतने बड़े थे!

 

संगी साथी याद तो आते होंगे-

बीते पल मन भी भटकाते होंगे,

उड़ते  पाखी संदेसा जब लाते होंगे;

पढ़ के उसको आंसू भी तो आते होंगे-

कैसे खुद को समझाते होगे?

कैसे वो पीर दबाते होगे?

क्या कभी पछताते भी होगे

तब कैसे खुद को भरमाते होगे?

 

पर, शायद ये मेरे ही विचार हैं-

जो मेरे मानव होने का प्रमाण हैं,

कदाचित, मेरी समझ के ही पार है कि-

तुमसे ही तो धरती पर जीवन साकार है। 

 

निश्चय ही तुमने बहुत विचारा होगा;

मानव हित में ही घर-आँगन वारा होगा। 

 

चल पड़े तुम नई डगर,

छोड़ आये तुम अपना नगर;

घर से जब तुम दूर चले-

तब ही तो तुम आगे निकले,

जब तुम अम्बर की ओर बढ़े;

तब रचने तुम इतिहास चले।  

 

खड़े हो तुम सर उठाये,

अंतर में प्रहास समाये;

सदियों का इतिहास समेटे,

सदा हिम की चादर लपेटे,

अंतहीन समय खुद में समेटे;

आगे ही बढ़ने का ही संदेसा देते,

मुझको हरदम पास बुलाते,

अपनी गरिमा से रिझाते;

जीवन का सब सार बताते!

बिन बोले भी हम हैं कितना बतियाते!!

 

जल में, थल में और नील गगन में

देखा क्या कुछ तुम सा मैंने जीवन में


Thursday, October 8, 2020

 

शायद

 


मेरी नज़र बार-बार हाथ पर बँधी घड़ी पर जा रही थी। क्लास में छात्राएँ सरप्राइज टेस्ट करने में व्यस्त थीं और बाहर बरखा रानी जल-थल एक करने में लगीं थीं। मेरा मन-पसंद, मौसम पर आज मन कुछ अन्मयस्क था, पता नहीं क्यों? नई-नई  नौकरी थी मेरी उस उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में और दायित्व था कक्षा बारहवीं और दसवीं को अँग्रेज़ी पढ़ाने का (अंग्रेजी कभी भी मेरा विषय नहीं रहा पर शायद विषय पर पकड़ और रूचि को देखते हुए मुझे यह दायित्व दे दिया गया ) छात्राओं के साथ तारतम्य बैठाने में मुझे कोई कठिनाई भी नहीं हुई क्योंकि बारहवीं की छात्राओं में और मुझमे मात्र - वर्षों का ही अंतर था।  विद्यालय में कम ही समय में मैं काफी लोकप्रिय हो गई थी।  मुझे ऐसा लगने लगा था की मैं शायद बहुत परिपक्व हो गई हूँ और बड़े-बड़े निर्णय करने में समर्थ भी

यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी और  जल्दी ही इसका एहसास भी हो गया, जीवन भर के लिए।

बाहर की बारिश से मेरे मन में भी कुछ घुमड़ रहा था, क्या ???पता नहीं। 

तभी छुट्टी की घंटी बज गई। जल्दी जल्दी उत्तरपुस्तिकाएं जमा करके ,लॉकर में रख कर मैं जैसे ही स्कूल के बाहर निकली बारिश बंद और तेज़ धूप - उफ़....... अब धूप में चलना पड़ेगा। तभी मेरी नज़र उस पर  पड़ी........ सड़क के मोड़ पर  शायद वह मेरा ही इंतज़ार कर रहा था। उसे दूर से देख कर बरबस मेरे होठों पर मुस्कान गई पर अचानक देखा की उसका चेहरा तमतमाया हुआ है और आंखें भरी हुईं हैं। हैरानी के साथ-साथ मुझे दुःख भी हुआ। कम ही समय में हमारे बीच एक रिश्ता जुड़ गया था। हमारी रुचियाँ भी मिलती थीं और वेवलेंथ भी।  यह दूसरी बात थी की वह मुझसे दो-तीन साल छोटा था और मेरे एक दोस्त का भाई था।    

 हमारा एक-दूसरे  के घर भी काफी आना जाना था।  मैं और उसका भाई साथ-साथ पढ़ते थे पर मेरी दोस्ती उससे ज़्यादा हो गई थी।  हमारा सबसे मन-पसंद शगल था उसके भाई को उसकी महिला मित्रों के लिए चिढ़ाना।  कभी-कभी उनको ब्लैंक-कॉल कर देना या फिर एक के सामने दूसरी का ज़िक्र कर देना। वह मुझे दीदी कहता ही नहीं मानता भी था। अपनी हर बात मुझसे शेयर करता था।  यहाँ तक की उसके क्रश के बारे में भी उसने सिर्फ मुझे ही बताया और कहा की कुछ बन जाने के बाद ही वह अपने घर में बात करेगा। 

 उस दिन जब वह मुझे मिला तो बहुत परेशान था। हम लोग एक कॉफी शॉप में बैठ गए बहुत पूछने पर  वह रोने लगा और बोला की पता नहीं कैसे उसके क्रश की बात उस लड़की के घर वालों को पता चल गई (लड़की भी उसको पसंद करती थी और फ़ोन पर - बार इन लोगों की बात भी हुई थी) और उन्होंने घर आकर काफी भला-बुरा कह दिया था।  घरवालों के पूछने पर उसने सच बोल दिया और गुस्से में उसके पिता जी ने उसको थप्पड़ लगा दिए (लड़की और उसके घर वालों के सामने) सुनकर मुझे भी तकलीफ हुई जो मैंने जाहिर नहीं होने दी।  अचानक उसने जेब से एक डिब्बी निकली और बोला, मैं घर जाऊँगा और अब ना ही किसी से कोई बात करूँगा।  मैंने देखा की वो सल्फास की डिब्बी थी।  मैंने वो डिब्बी उससे छीन ली और बहुत देर तक उसे समझाती रही की आत्महत्या कोई हल नहीं है।  और पिता की मार का इतना बुरा नहीं मानना चाहिए।  शायद उनको भी दूसरे लोगों का तुम्हे भला-बुरा कहना ठीक नहीं लगा होगा इसीलिए फ़्रस्ट्रेशन में उन्होंने हाँथ उठा दिया होगा। करीब घंटे हम बातें करते रहे। फिर वह बोला की शायद आप ठीक कह रही हैं सुसाइड इस नॉट एट आल सोल्युशन।

हम थोड़ी देर और वहां बैठे फिर वह बोला, दी अब आप घर जाओ काफी देर हो गई है।  उससे कोई गलत कदम उठाने का वादा लेकर जब मैंने कहा की मैं तुमसे रात में फ़ोन पर बात करूंगी तो उसने कहा की आज घर का माहौल काफ़ी गरम है, आप कल फ़ोन करना।

 घर कर मैंने पूरी बात अपने माँ को बताई (उनसे मैं कभी भी कुछ भी नहीं छुपाती थी ), पहले हमने सोचा की वह फ़ोन करके उसकी माँ से बात करें फिर हमें लगा की इससे कहीं कोई और मुश्किल खड़ी  हो जाए उसके लिए। 

रातभर मैं इसी ख़याल से जूझती रही की क्या करना ठीक होगा??? बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी, बिजली चमक रही थी और नींद भी कोसों दूर थी।  फिर मैंने सोचा की सुबह सबसे पहले मैं उसके भाई से बात करूंगी शायद वह सब समझेगा पर स्कूल के लिए देर हो रही थी तो सोचा की स्कूल जा कर फोन  कर लूंगी (तब मोबाइल फ़ोन जो  नहीं होते थे) और मैं स्कूल के लिए निकल पड़ी।  स्कूल पहुँच कर सबसे पहले मैंने फ़ोन किया और पहले  उससे बात करनी चाही, दूसरी तरफ़ से रोने की आवाज़ के साथ मुझे किसी महिला ने बताया कि उसने तो कल शाम सल्फास खा लिया और बॉडी अभी पोस्टमॉर्टेम में है। मेरे हाथ जैसे रिसीवर से चिपक गए थे, दिमाग बिलकुल सुन्न हो गया था, आँखों से आंसू बह रहे थे सामने प्रिंसिपल खड़ी थीं और मुझसे पूछ रही थीं की क्या हुआ...... उन्हें लगा शायद मेरी माँ (जो की उस समय काफी बीमार रहतीं थीं) को कुछ हो गया..... आधे अधूरे शब्दों और टूटे-फूटे वाक्यों में क्या मैंने उन्हें बताया और क्या उन्होंने समझा मगर उन्होंने अपने ड्राइवर को बुलाया और कहा की इनको जहाँ जाना है ले जाओ वहां वेट करना फिर वहाँ से इन्हे घर छोड़ कर आना। 

जब मैं उसके घर पहुंची तो उसकी माँ ने मुझे गले से लगा लिया और फूट-फ़ूट  कर रोने लगीं, बोलीं, मेरा बच्चा भूखा-प्यासा चला गया।  उसने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। मैंने रोते-रोते उन्हें बताया की कल शाम को वह मुझसे मिला था और मैंने उसको खाना खिलाया था।  

उन्होंने अपने आस-पास बैठी महिलाओं से कहा की वो मुझसे अकेले में बात करना चाहती हैं। फिर उन्होंने मुझसे एक-एक बात पूछी और बताया की शायद इसीलिए जब उसे हॉस्पिटल  ले जा रहे थे तो वह बार-बार  कह रहा था पापा सॉरी, भाई सॉरी………. भाई, दी को सॉरी  कहना मेरा मैंने उनको धोखा दिया, आई ऍम एक्स्ट्रीमली सॉरी। उसके अंतिम शब्द थे ,"दी सॉरी" ........ हम  सिसकियों के बीच बीच अपनी-अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे थे।  वाक्य हिचकियों से टूट रहे थे पर आँसू सब कह रहे थे। 

अचानक ऑन्टी मुझसे बोलीं ,"बेटा, सुसाइड केस है पुलिस ज़रूर आएगी पर तुम किसी को कुछ भी मत बताना पता नहीं तुम पर कोई मुसीबत ना जाए"

"तुम जाओ और बहुत दिनों तक यहां मत आना, बेटा तो गया पर बेटी पर कोई मुसीबत नहीं आनी  चाहिए"

 आज भी मुझे उसका वह आखरी बार देखा चेहरा नहीं भूलता। डूबते हुए सूरज की वजह से उसके चेहरे पर एक अजीब सी आभा थी यह फिर उसके कुछ कर लेने का दृढ़ निश्चय पर वैसी चमक मुझे किसी के चेहरे पर नहीं दिखी ........ कभी भी। 

 आज इस बात को पूरे पच्चीस  साल बीत गए हैं पर  जब भी उसकी याद आती है, टीस उठती है……… अपने ऊपर गुस्सा आता है, कभी-कभी खुद से घृणा भी होती है कि अगर उस दिन उसके घर वालों को बता दिया होता तो आज वह हमारे बीच होता ......... शायद।

यह "शायद" तो अब ज़िंदगी भर की पीड़ा और कभी भरने वाला ऐसा ज़ख्म है जो दिखाई तो नहीं देता पर अक्सर उसके किसी हमनाम से मिलने पर, मूसलाधार बारिश होने पर, बारिश के होते-होते अचानक धूप निकलने पर, उसके जन्मदिन पर, अगस्त की उस मनहूस तारीख पर और भी अनगिनत मौकों पर अपने होने का एहसास करा देता है।