तुम इतना क्यों याद आती हो
माँ! तुम कितना याद आती हो?
या फिर शायद भूली ही नहीं जाती हो।
दर्पण देखूं तो तुम झलक जाती हो,
पलकें बंद करूँ, तो तुम छलक जाती हो।
हर बीते दिन के साथ और ज़्यादा याद आती हो,
मेरी बढ़ती उम्र के साथ, मुझमें समाती जाती हो;
फिर क्यूँ इतना याद आती हो??
हर वो बात, जो तुमको भाती थी -
अब मुझको भी भाती है,
लगती है जैसे तुम्हारी ही थाती है;
और तुम्हारी याद -
वो तो रोज़ चली आती है।।
तुम्हे देखने को आँखें तरस जाती हैं,
और तुम्हारी सब बातें बहुत याद आती हैं,
हर रात सपनो की बरात सी आती है ;
फिर भी-
तुम्हारी शकल नहीं दिख पाती है।।
तुमसे हुआ हर झगड़ा अब बहुत हंसाता है,
पर, तुम्हारा प्यार हमेशा रुला जाता है;
मेरा मन मसोस कर रह जाता है,
क्यों की, बस तुम्हारा सपना कभी नहीं आता है।।
अब तो मैं समय से पहले उठ जाती हूँ,
हर चीज़ करीने से सजाती हूँ;
खुद में तुम्हारी छवि ढूँढा करती हूँ,
पता है-
शायद, तुम जैसा बनने की कोशिश करती हूँ।।
दिन पर दिन तुम मुझ में समाती जाती हो;
फिर भी क्यों इतना याद आती हो??