नदी की जीवनगाथा
पूर्ण प्रवाह में थी मधुर गेयता;
हो जैसे कोई कविता;
पहाड़ियों पर कूदती-फाँदती
नए बंधन जोड़ती-गाँठती
बलखाती-इठलाती, मैं संकुलों में
कभी मैदानों में और कभी वनकुलों में।।
वेग कुछ थमा, जब आई परिपक़्वता,
थम गया जीवन, आ गई जड़ता;
ज़रा सी ढाल मिली-
मैं फिर बह चली,
वो चट्टानें जो मार्ग में में गले आ लगीं थीं
मेरे प्रवाह, वेग और स्पंदन को ग्रस रहीं थीं-
हो विमुख मैं उनसे चली।।
अब मैं अपने लक्ष्य को चली,
सब कुछ सहेजती और समेटती चली;
कभी मंद मस्ती में-
और कभी वेगवान हो उफनती चली मैं;
जा रही हूँ वहाँ-
बाँहें पसारे खड़ा है सागर जहाँ।।
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